नमस्कार दोस्तों इस पोस्ट में हम एरिक्सन का मनोसामाजिक विकास सिद्धांत के बारे में विस्तार से जानेंगे और इनके विभिन्न पहलुओं पर भी हम चर्चा करेंगे।
एरिक्सन के मनो-सामाजिक विकास के प्रतिमान (Model) का बहुत महत्त्व है। यह सिद्धान्त बाल विकास के साथ प्रौढ़ों के विकास में भी सहायक है। एरिक एरिक्सन (Erick Erickson) ने सर्वप्रथम आठ-स्तरीय मानव विकास का सिद्धान्त 1950 में अपनी पुस्तक ‘बाल्यकाल और समाज’ (Childhood and Society) नामक पुस्तक में प्रकाशित किया।
इस ऐरिक्सन का विचार था कि मनो-सामाजिक सिद्धान्त विकास में मनुष्य की जैविकीय रूप से (Genetically) स्वरूप प्रदान करता है। यह सभी व्यक्तियों में होता है। फ्रायड की भाँति एरिक्सन ने भी इस बात पर बल दिया कि व्यक्तित्त्व और व्यवहार जन्म के बाद न कि जन्म से पहले किस प्रकार प्रभावित होते हैं।
ऐक्स के सिद्धान्त का केन्द्रीय बिन्द यह है कि मन के व्यक्तित्व का विकास कई पूर्वनिश्चित अवस्थाएँ जो सार्वभौमिक (Universal) होती हैं, से होकर होता है। जिस प्रक्रिया द्वारा ये अवस्थाएँ विकसित होती हैं, वह विशेष नियम द्वारा नियंत्रित होती हैं। इस नियम को ‘पश्चजात नियम’ (Epigenetic Principle) कहा जाता है।
मनोसामाजिक अवस्थाओं की विशेषताएँ
(Characteristics of Psycho Social Stages)
(i) प्रत्येक मनोसामाजिक अवस्था में एक संक्रान्ति (Crisis) होती है, जिससे अभिप्राय है-जीवनकाल का एक ऐसा वर्तन बिन्दु (Turning Point) होता है, जो उस अवस्था में जैविक परिपक्वता तथा सामाजिक माँग (Social Demand) दोनों में अन्तक्रिया के फलस्वरूप व्यक्ति में उत्पन्न होता है।
(ii) प्रत्यक मनोसामाजिक संक्रान्ति (Psycho-social Crisis) में धनात्मक और ऋणात्मक दोनों ही तत्त्व (Components) होते हैं। प्रत्येक अवस्था में उसके जैविक परिपक्वता तथा नये-नये सामाजिक माँग के कारण संघर्ष (Conflict) का होना एरिक्सन आवश्यक मानते हैं। यदि इस संघर्ष का व्यक्ति संतोषजनक ढंग से समाधान कर लेता है तो इससे उसके विकसित अंह (Ego) में ऋणात्मक तत्त्व (Negative Component) अवशोषित (Eliminate) हो जाते हैं तथा व्यक्तित्त्व विकास में बाधा पैदा होने की सम्भावना कम रह जाती है।
(iii) प्रत्येक मनो-सामाजिक अवस्था के संक्रान्ति (Crisis) को व्यक्ति को दूर करना होता है या उसका समाधान करना होता है। ऐसा न करने से मनोसामाजिक विकास की अगली अवस्था में उसका विकास नहीं हो पाता है। मनोविकास की प्रत्येक अवस्था में संक्रान्ति (Crisis) का समाधान कर लेने से व्यक्ति में एक विशेष मनोसामाजिक शक्ति (Psycho social strength) की उत्पत्ति होती है। इस शक्ति को एरिक्सन ने ‘सदाचार’ (Virtue) का नाम दिया है।
(iv) हर मनो-सामाजिक अवस्था में ‘कर्म कांडता’ (Ritualization), कर्मकांड (Ritual ) तथा कर्मकांडवाद (Ritualism) होते हैं। इसे एरिक्सन ने ‘तीन आर’ (Erikson’s Three R’s) का नाम दिया है। कर्मकांडा (Ritualisation) से अभिप्राय है-समाज के दूसरे व्यक्ति के साथ सांस्कृतिक रूप से स्वीकृत ढंग से अन्तर्क्रिया करना। ऐसे व्यवहार थोड़े-थोड़े समय के बाद
अर्थपूर्ण संदर्भ में दोहराये भी जाते हैं। कर्मकांड (Ritual) से तात्पर्य है-वस्यक समुदाय द्वारा आवर्ती स्वरूप के महत्त्वपूर्ण घटनाओं को दर्शाने के लिए किये गये कार्यों से होता है। कर्मकांडवाद (Ritualism) से तात्पर्य कर्मकांडता (Ritualization) में उत्पन्न विकृति
(Distortion) से होता है। इससे व्यक्ति का ध्यान स्वयं अपने ऊपर ही केन्द्रित होता है। (v) प्रत्येक मनो-सामाजिक अवस्था का निर्माण उससे पहले कि अवस्था में हुए विकासों से सम्बन्धित होता है।
एरिक्सन द्वारा प्रतिपादित मनोसामाजिक अवस्थाएँ
1. विश्वास बनाम अविश्वास (Trust Versus Mistrust)
यह अवस्था जन्म से लेकर 1 वर्ष तक की आयु की होती है। यह द्वारा बताई मनोगिक विकास (Psycho-sexual Development) की ‘मुखावास्था’ (Oreal Stage) से मिलती जुलती है। इस अवस्था में भिन्न गुणों का विकास होता है।
(i) दूसरों तथा अपनों में विश्वास या आस्था (Trust) की भावना का विकास। इस भावना का विकास बच्चों में माता-पिता द्वारा उत्तम देख-रेख के परिणाम स्वरूप होता है।
(ii) दूसरों के प्रति आस्था के साथ-साथ बच्चे में यह भी विश्वास पैदा हो जाता है कि उनके शरीर के अंग जैविक आवश्यकताओं (Biological Needs) को पूरा करने में सक्षम हैं।
(iii) बच्चों में स्वस्थ व्यक्तित्त्व के निर्माण की नींव पड़ती है।
(iv) कई बार कई कारणों से माताएं उत्तम देख-रेख नहीं कर पातीं, जिससे बच्चे में अविश्वन (Mistrust) पैदा होता है।
(v) अविश्वास के कारण बच्चा दूसरों से डर (Fear), संदेह (Suspecion) एवं आशंकाएँ
(Apprehensions) आदि विकसित कर लेता है, जिससे अस्वस्थ व्यक्तित्त्व का जन्म होता
है। (vi) एरिक्सन के मतानुसार, शिशुओं के व्यक्तित्त्व के विकास में विश्वास और अविश्वास में एक अनुकूल अनुपात (Favourable ratio) का होना अनिवार्य है।
(vii) अनुकूल अनुपात होना इसलिए आवश्यक होता है, क्योंकि वातावरण के साथ प्रभावकारी समायोजन के लिए किसी चीज या व्यक्ति पर विश्वास न करना सीखना उतना ही आवश्यक है जितना किसी चीज पर व्यक्ति पर विश्वास करना सीखना।
(viii)जब बच्चा विश्वास बनाम अविश्वास (Trust vs. Mistrust) के संघर्ष या द्वंद्व (Conflict) का समाधान सफलतापूर्वक कर लेता है तो उसमें एक विशेष ‘मनोसामाजिक शक्ति’ (Psychosocial Strength) की उत्पत्ति होती है। जिसे ‘आशा’ (Hope) का नाम दिया गया है।
(ix) ‘आशा’ (Hope) से अभिप्राय है-एक ऐसी मनोसामाजिक शक्ति जिनकी सहायता से बच्चा अपने सांस्कृतिक वातावरण तथा अपने अस्तित्त्व को अर्थपूर्ण ढंग से समझने लगता है।
2. स्वतंत्रता बनाम लज्जाशीलता और संदेह (Autonomy Versus Shame and Doubt)
स्वतन्त्रता (Autonomy) बनाम लज्जाशीलता (Shame) की यह अवस्था दो वर्ष से तीन वर्ष तक की होती है। स्वतन्त्रता (Autonomy) से अभिप्राय है (Self Reliance)। इसमें विचारों, स्वयं क्रिया करने आदि की स्वतन्त्रता शामिल है। शीलता और सन्देह से अभिप्राय है-वे क्या कहते हैं, स्व-अभिव्यक्ति में रुकावट (Inhibition in Self Expression) तथा स्वयं के विचार विकसित करना इत्यादि । एरिक्सन की यह अवस्था फ्रायड की मनोलेगिक विकास की ख़ुदा अवस्था (Anal Stage) से मिली जुलती है। इस अवस्था में निम्न गुणों का विकास हो जाता है-
(i) जब बच्चा आस्था या विश्वास का भाव विकसित कर लेता है तो उसमें स्वतन्त्रता (Autonomy) एवं आत्म-नियंत्रण (Sell-Control) जैसे शीलगुण (Traits) इस दूसरी अवस्था में पैदा हो जाते हैं। इससे पहले की अवस्था में बच्चे दूसरों पर निर्भर करते हैं।
(ii) इस अवस्था में बच्चों में न्यूरोपेशीय परिपक्वता (Neuromuscular Maturity), सामाजिक • विभेद (Social Discrimination) तथा शाब्दिक अभिव्यक्ति (Verbalization) की क्षमता विकसित हो जाती है। यह क्षमता वातावरण का स्वतंत्रता से अन्वेषण (Explore) करना शुरू कर देती है।
(ii) बच्चा अपने नये गति कौशलों (Locomotor Skills) से बहुत प्रोत्साहित रहता है।
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3. पहल शक्ति बनाम दोषिता (Initiative Versus Guilt)
यह अवस्था लगभग 4 से 6 वर्ष तक होती हैं यह अवस्था फ्रॉयड के मनोलैंगिक विकास (Psychosexual development) की लिंग प्रधानावस्था (Phallic Stage) से मिलती जुलती है। इस अवस्था में निम्नलिखित गुणों का विकास होता है-
(i) बच्चों को दूसरों के कार्यों में आनन्द आता है।
(ii) बच्चों की सामाजिक दुनिया (Social World) उन्हें सक्रियता एवं पहल-शक्ति (Initiative). दिखलाने की चुनौती प्रदान करती है।
(iii) बच्चे घर के बाहर के वातावरण के बच्चों के साथ सामाजिक खेल-कूद में भाग लेना पंसद करने लगते हैं, क्योंकि बच्चों की भाषा एवं पेशीय कौशलों का विकास इस अवस्था तक हो चुका होता है।
(iv) बच्चे इस अवस्था में पहली बार महसूस करते हैं कि उनकी गिनती भी एक आदमी के रूप में
की जाती है तथा उनकी जिन्दगी का भी एक उद्देश्य है।
(v) जब माता-पिता द्वारा बच्चों को इस अवस्था में घर से बाहर के सामाजिक कार्यों में हाथ बँटाने से रोका जाता है या जब माता-पिता द्वारा बच्चों के इस तरह की इच्छा पर शाब्दिक या शारीरिक दंड दिया जाता है, तब बच्चों में दोषिता (Guilt) का भाव उत्पन्न होता है।
(vi) ऐसे बच्चे कभी भी स्वयं को खुलकर अभिव्यक्ति (Express) नहीं करते।
(vii) बच्चों में किसी वास्तविक लक्ष्य (Tangible Goal) को प्राप्त करने में प्रयत्नशील रहने की क्षमता समाप्त हो जाती है
(viii) एरिक्सन (Erikson) के अनुसार जब बच्चों में दोषिता (Guilt) का भाव सतत् बना रहता है तो उनमें निष्क्रियता, लैगिक नपुंसकता एवं अन्य मनोविकारी क्रिया करने की प्रवृत्तियाँ तीव्र हो जाती है।
(ix) जब बच्चा पहल-शक्ति बनाम दोषिता (Initiative Vs. Guilt ) से पैदा संघर्ष (Conflict) का समाधान सफलतापूर्वक कर लेता है तब जिस मनोसामाजिक शक्ति (Psychosocial Strength) की उत्पत्ति होती है उसे उद्देश्य (Purpose) कहा जाता है ‘उद्देश्य’ (Purpose) से तात्पर्य एक ऐसी मनोसामाजिक शक्ति से है, जो बच्चों में कोई लक्ष्य निश्चित करने एवं उसे विश्वास के साथ बिना किसी दंड के भय के ही प्राप्त करने की क्षमता विकसित करने से होता है।
4. परिश्रम बनाम हीनता (Industry Versus Inferiority )
यह चाथी अवस्था 6 वर्ष की शुरू होकर लगभग 11-12 वर्ष तक की होती है तथा यह फ्रॉयड के मनोलैंगिक विकास (Psychosexual Development) के अव्यक्तावस्था (Latency Period) से मिलती-जुलती है। इस अवस्था में निम्नलिखित मुख्य गुण विकसित होते हैं- आयु
(i) इस अवस्था में पहली बार बच्चे औपचारिक शिक्षा (Formal Education) के माध्यम से संस्कृति के प्रारंभिक कौशलों को सीखता है।
(ii) इस अवस्था में बच्चों का सम्बन्ध निगमनात्मक तर्कणा (Deductive Reasoning), आत्म-अनुशासन तथा अनुमोदित नियमों के अनुरूप अपना सम्बन्ध साथियों के साथ बनाये रखने की क्षमता से अधिक होता है।
(ii) जब बच्चे स्कूलों में अपनी संस्कृति के प्रारम्भिक कौशलों को सफलतापूर्वक सीखते हैं तो उनमें परिश्रम (Industry) का भाव उत्पन्न होता है।
(iv) परिश्रम के ऐसे भावों को स्कूलों में अध्यापकों तथा आस-पड़ोस के सदस्यों से अधिक प्रोत्साहन मिलता है। (v) जब बच्चों को अपने कौशल पर शक हो जाता है या इन कौशल को अर्जित करने में असफल
हो जाता है तब इससे बच्चों में ‘हीनता’ या ‘असामर्थ्याता (Inferiority or Incompetence) की भावना विकसित होती है।
(vi) यह भावना बच्चों में तब भी विकसित होती है। जब वह यह देखता है कि उसकी निपुणता का
माप उसकी योग्यता एवं कौशल न होकर उसकी प्रजाति, धर्म, यौन आदि हैं। (vii) हीनता के भाव के अन्तर्गत बच्चे को अपनी क्षमता पर विश्वास समाप्त हो जाता है।
(viii) जब बच्चा परिश्रम बनाम हीनता (Industry Vs Inferiority) के संघर्ष (Conflict) का समाधान सही तरीके से कर लेता है तब उसमें ‘सामर्थ्यता’ (Competency) कहा जाता है। ‘सामर्थ्याता (Competency) से अभिप्राय है-किसी कार्य को पूरा करने में शारीरिक एवं बौद्धिक क्षमताओं का उचित प्रयोग करना।
5. अहं पहचान बनाम भूमिका संभ्राति (Ego Indentity Versus Role Confusion)
मनोसामाजिक विकास की यह पाँचवी अवस्था बहुत महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। यह अवस्था 12 वर्ष से लेकर 19 या 20 वर्ष की आयु तक होती है। इस अवस्था में निम्नलिखित गुणों का विकास होता है- (i) इस अवस्था में किशोरों के बीच अहं पहचान का भाव धनात्मक मनोसामाजिक पहलू (Positive Psychosocial Aspect) तथा भूमिका संभ्रांति (Role Confusion ) या जिसे पहचान संप्राति] (Identity Crisis) भी कहा जाता है, एक णात्मक मनोसामाजिक पहलू (Negative Psychosocial Aspect) के रूप में विकसित होता है।
(ii) इस अवस्था में किशोर अपनी आत्म-पहचान बनाये रखने का प्रयास करता है। (iii) यहाँ ‘पहचान’ (Identify) से अभिप्राय है कि व्यक्ति अपने संसार के सम्बन्ध में स्वयं को किस प्रकार देखते हैं। यह जीवन के संदर्भ में स्वयं का बोध (Sense of Self) या वैयक्किता (Individuality) है।
(iv) भूमिका संप्रति (Role Confusion) ऋणात्मक परिप्रेक्ष्य (Negative Perspective) में—पहचान की अनुपस्थिति या अभाव है अर्थात् व्यक्ति यह स्पष्ट से नहीं देख पाता कि वे कौन हैं और वे अपने पर्यावरण के साथ सकारात्मक रूप से किस प्रकार जुड़ सकते हैं।
(v) यह अवस्था किशोरावस्था या प्युबर्टी (Puberty) के समान है। इसमें लैगिंक शक्ति (Sexual Urge) पुनः जाग्रत हो जाती है।
(vi) भूमिका संभ्राति की पहचान संक्रान्ति (Role Confusion or Identity Crisis) उत्पन्न होने पर वीर ठीक ढंग से अपनी जीविका (Career) का मार्गदर्शन नहीं कर पाते। वे अपनी शिक्षा आदि को जारी रखने में असमर्थ होने लगते हैं।
6 , घनिष्ठ बनाम बिलगन ( Intimacy versus Isolation)
यह छटी अवस्था 20 वर्ष से लेकर 30 वर्ष की आयु तक होती है। इस अवस्था में निम्न गुण एवं व्यवहार विकसित होते हैं-
(i) इस अवस्था में व्यक्ति शादी ब्याह कर प्रारम्भिक पारिवारिक जिन्दगी (Early Family Life) में प्रवेश करता है।
(ii) युवक किसी न किसी व्यवसाय में अपने को लगाकर अपना स्वतन्त्र जीविकोपार्जन शुरू कर देता है।
(iii) इस अवस्था में व्यक्ति सही अर्थों में दूसरों के साथ सामाजिक एवं लैगिंक (Social and
Sexual) घनिष्ठता ( Intimacy) स्थापित करने के लिए तत्पर रहता है। (iv) इस अवस्था में व्यक्ति अपने भाई-बहनों, माता-पिता तथा अन्य सम्बन्धियों के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध विकसित करता है तथा अपने पति-पत्नी के साथ घनिष्ठ लैंगिक सम्बन्ध स्थापित
करता है।
(v) व्यक्ति स्वयं के साथ भी घनिष्ठ सम्बन्ध विकसित कर एक स्वस्थ व्यक्तित्त्व का विकास करता है। (vi) इस अवस्था का खतरा यह रहता है कि व्यक्ति दूसरों के साथ कुछ कारणों से संतोषजनक एवं
घनिष्ठ वैयक्तिक सम्बन्ध विकसित नहीं कर पाता तथा अपने आप में ही खोया रहता है। इसे ‘विलगन’ (Isolation) की संज्ञा दी गई है। (vii) ऐसे व्यक्ति जो अन्तः वैयत्तिक सम्बन्ध स्थापित भी करते हैं, अन्दर से खोखले होते हैं। ऐसे लोगों में अपने कार्य के प्रति नीरसता एवं व्यर्थता की मनोवृति होती है।
(viii) विलगान (Isolation) की जब मात्रा अधिक हो जाती है तो व्यक्ति में समाजविरोधी व्यवहार (Antisocial behaviour) या मनोविकारी व्यवहार (Psychopathic behaviour) की प्रबलता बढ़ जाती है।
(ix) जब व्यक्ति घनिष्ठता बनाम विलगन से उत्पन्न संघर्ष का समाधान सफलतापूर्वक कर लेता है तो उसमें जो विशेष मनो-सामाजिक शक्ति (Psychosocial Strength) पैदा होती है, उसे ‘स्नेह’ (Love) की संज्ञा दी गई है। स्नेह (Love) से तात्पर्य है-किसी सम्बन्ध को कायम रखने में पारस्परिक समर्पण (Mutual Devotion) की क्षमता का होना। ऐसे स्नेह को अभिव्यक्ति तब होती है जब व्यक्ति दूसरों के प्रति आदर, उत्तरदायित्व आदि की मनोवृत्ति का प्रदर्शन करता है।
7. जननात्मकता बनाम स्थिरता (Generativity Versus Stagnation )
यह अवस्था 30 वर्ष से 65 वर्ष की आयु तक मानी गई है। इस अवस्था में निम्नलिखित गुणों का विकास होता है-
(i) इस अवस्था में व्यक्ति में जननात्मकता (Generativity) का भाव उत्पन्न होता है। जननात्मकता (Generativity) ) से अभिप्राय है व्यक्ति द्वारा अपने अगली पीढ़ी (Generation) के लोगों के कल्याण तथा साथ ही साथ उस समाज के लिए जिसमें वे लोग रहेंगे, को उन्नत बनाने की चिन्ता से होता है। संक्षेप में, जननात्मकता का अर्थ बूढ़े व्यक्तियों में उन व्यक्तियों के कल्याण के बारे में प्रदर्शित सोच-समझ एवं चिन्ता जो उनकी जगह लेने वाले होते हैं।
(ii) जननात्मकता (Generativity) में उत्पादकता (Productivity) तथा सर्जनात्मकता (Creativity) से भी होता है। जब व्यक्ति में जननात्मकता की चिन्ता उत्पन्न नहीं होती तो उसमें स्थिरता (Stagnation) पैदा होने का खतरा बढ़ जाता है। ऐसे व्यक्ति के लिए अपनी स्वयं की वैयक्तिक आवश्यकताएँ एवं सुख-सुविधा (Comfort) ही सर्वोपरि होता है। ऐसे व्यक्ति को किसी दूसरे की चिन्ता नहीं होती।
8. अहं सम्पूर्णता बनाम निराशा (Ego integrity versus Despair )
एरिक्सन के मनोसामाजिक विकास की यह अन्तिम अवस्था है, जो कि परिपक्वता की अवस्था होती है। जो लगभग 65 वर्ष तथा उससे अधिक की आयु अर्थात् मृत्यु तक की अवधि को अपने में शामिल करती है। हर संस्कृति में इसको ‘बुढ़ापा’ की अवस्था कहा गया है। इस अवस्था में निम्नलिखित गुण या व्यवहार विकसित होते हैं-
(i) इन अवस्थाओं में गिरते हुए शारीरिक स्वास्थ्य एवं शक्ति के साथ उचित समायोजन, अवकाश
प्राप्ति से आय में उत्पन्न कमी, अपने किसी प्रिय की मृत्यु तथा अपने आयु समूह के साथ सम्बन्धों की आवश्यकता मुख्य होती है। (ii) इस अवस्था में व्यक्ति का ध्यान भविष्य से हटकर अपने बीते दिनों पर तथा उनमें प्राप्त सफलताओं और असफलताओं की ओर अधिक होता है।
(iii) एरिक्सन के अनुसार इस अवस्था में किसी स्पष्ट नए मनोसामाजिक संक्रान्ति (Psychosocial Crisis) की उत्पत्ति नहीं होती।
(iv) व्यक्ति अपने सभी पिछले मनोसामाजिक अवस्थाओं की घटनाओं का समन्वय एवं मूल्यांकन करता है। इससे उनमें अहं सम्पूर्णता (Ego integrity) का भाव उत्पन्न होता है।
(v) इस अवस्था में व्यक्ति को मृत्यु से डर नहीं लगता, क्योंकि ऐसे व्यक्ति अपनी संतान और सृजनात्मक उपलब्धियों के माध्यम से अपने अस्तित्त्व को जारी समझते हैं।
(vi) एरिक्सन के अनुसार यह वह अवस्था है, जिसमें व्यक्ति में परिपक्वता अपने वास्तविक अर्थ में पैदा होती है तथा बुद्धिमत्ता का व्यावहारिक ज्ञान (Practical Sense of Wisdom) व्यक्ति में उत्पन्न होता है। (vii) इस अवस्था की प्रमुख मनोसामाजिक शक्ति (Psychosocial Strength ) परिकता है।
(viii) इस अवस्था में कोई व्यक्ति अपने बीते मनो-सामाजिक अवस्थाओं में उत्पन्न असफलता से चिन्तित भी रहता है। इससे उनमें निराशा (Despair) उत्पन्न होती है और वे अपने को निहाय और निर्बल समझने लगते हैं। यदि ऐसी भावना तीव्र हो जाती है तो उनमें मानसिक दिपाद (Mental Depression) भी उत्पन्न हो जाता है।
एरिक्सन के सिद्धांत के गुण (Merits of Erikson’s Theory)
(i) इस सिद्धांत में व्यक्तित्त्व के विकास एवं संगठन की व्याख्या करने के लिए समाज एवं स्वयं व्यक्ति की भूमिकाओं पर समान रूप से चल डाला गया है।
(ii) एरिक्सन ने इस सिद्धांत में किशोरावस्था को बहुत महत्त्वपूर्ण माना है।
(iii) एरिक्सन ने अपने इस सिद्धांत में आशावादी दृष्टिकोण अपनाया है। किसी एक अवस्था में असफल होने पर दूसरी अवस्था में भी असफलता ही होगी, यह आवश्यक नहीं है।
(iv) एरिक्सन के इस सिद्धांत में जन्म से लेकर मृत्यु तक की मनो-सामाजिक घटनाओं को यक्तित्त्व के विकास एवं समन्वय (Integration) की व्याख्या में शामिल किया गया है, जो अपने आप में एक विशिष्टता है।
एरिक्सन के सिद्धांत के अवगुण (Demerits of Erikson’s Theory)
(1) एरिक्सन ने आवश्यकता से अधिक आशावादी दृष्टिकोण अपनाया है ऐसा आलोचकों का मत है। इससे उनके सिद्धांत में अव्यावहारिक्ता झलकती है। लेकिन एरिक्सन ने इस आलोचना का खंडन किया है तथा उन्होंने अपने सिद्धांत में आशावादी दृष्टिकोण के साथ-साथ वैसे दृष्टिकोण
को भी अपनाया है, जिससे व्यक्ति में चिन्ता आदि उत्पन्न होते हैं। (ii) कुछ आलोचकों के अनुसार, एरिक्सन ने अपने सिद्धांत में फ्रॉयड के व्यक्तित्त्व सिद्धांत का सरलीकरण ही किया है और कुछ नहीं किया।
(iii) कुछ मनोवैज्ञानिकों का मत है कि एरिक्सन के सिद्धांत में जितने तथ्यों, उपकल्पनाओं की व्याख्या की गई है उनका कोई प्रयोगात्मक समर्थन भी नहीं है। उनके सारे तथ्य तथा सम्प्रत्यय (Concepts) उनके व्यक्तिगत प्रेक्षणों (Personal Observations) पर आधारित हैं, जो बहुत आत्मनिष्ठ (Subjective) हैं।
(iv) कुछ आलोचकों का एरिक्सन का यह कथन मान्य नहीं कि बदलती हुई सामाजिक परिस्थितियों के अनुसार समायोजन करके ही एक उत्तम एवं स्वस्थ व्यक्तित्त्व का निर्माण किया जा सकता है जैसे आलोचकों का मानना है कि कुछ ऐसे व्यक्ति भी हैं जो समाज को परिस्थितियों से प्रभावित हुए बिना ही स्वयं समाज में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन लेकर आये हैं और वे एक स्वस्था व्यक्तित्त्व का निर्माण करने में सफल हुए हैं।
(v) शुल्ज (Schultz, 1990) के अनुसार अन्तिम मनोसामाजिक अवस्था की व्यवस्था अधूरी और असंतोषजनक (Unsatisfactory) है। कुछ आलोचकों का मानना है कि अन्तिम अवस्था में व्यक्ति में विकास उतना संतोषजनक नहीं होता जितना कि एरिक्सन के अंह सम्पूर्ण (Ego- integrity) के सम्प्रत्यय से संकेत मिलता है।
हमारी इस पोस्ट को पढ़ने के लिए धन्यवाद हम आशा करते हैं हमारे द्वारा दी गई जानकारी आपके काम आएगी।
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