कोलबर्ग नैतिक विकास सिद्धांत
नमस्कार दोस्तों इस पोस्ट में हम कोलबर्ग का नैतिक विकास का सिद्धांत के बारे में विस्तार से जानेंगे और इनके विभिन्न पहलुओं पर भी हम चर्चा करेंगे
प्रारंभिक आयु में बच्चा नैतिकता के सम्प्रत्यय (Concept) से अपरिचित होता है। उसका व्यवहार स्वाभाविक वृत्तियों द्वारा नियंत्रित होता है। उसकी वृत्तियों पर नियंत्रण के लिए समाज पुरस्कार एवं दंड, प्रशंसा एवं निन्दा की व्यवस्था करता है। इसके अतिरिक्त स्वयं बालक भी विभिन्न क्रियाओं से सम्पन्न होने वाले सुख एवं दुःख का अनुभव करता है। मनोवैज्ञानिकों ने इस बात के अध्ययन के प्रयत्न किए हैं कि किस प्रकार स्वाभाविक वृत्तियों से नियंत्रित होने वाला बालक सामाजिक नियमों व मर्यादाओं के अनुसार आचरण करके नैतिक व्यवहार को प्रदर्शित करने लगता है। नैतिक क्षमता के विकास के सन्दर्भ में मनोवैज्ञानिक एक
मत के नहीं हैं। नैतिक विकास के विभिन्न सिद्धांत हैं। इस लेख (Post) में केवल दो सिद्धांतों का ही वर्णन किया गया है। इस प्रश्न में कोलबर्ग (Kohlberg’s Theory) के सिद्धांत का वर्णन किया गया है।
फॉयड के अनुसार जब बच्चा माता-पिता की भावनाओं और अभिवृत्तियों को उनसे ग्रहण करता है- तथा उनसे ग्रहण की हुई नैतिकता ही आगे चलकर उसके लिए विवेक (Conscience) का रूप धारण कर लेती है। बालक नैतिक आचरण के लिए भीतर से निर्देशित होता है। इसे फ्रॉयड ने नैतिक विकास में व्यक्ति की बाल्यकालीन अनुभूतियों का महत्त्वपूर्ण स्थान बताया है।
सियर्स (Sears, 1957) ने बालकों के नैतिक विकास पर समाजीकरण और शिशुपालन विधियों (Child Rearing Practices) की भूमिका को महत्त्वपूर्ण बताया। बैन्दूरा और बाल्टर्स (Bandura and Walters, 1963) ने बताया कि बच्चे में नैतिक विकास सामाजिक अधिगम (Social Learning) का परिणाम होता. है। बच्चा अपने परिवेश में नित्य नमूनों (Models) के व्यवहार का अनुसरण कर नैतिक आचरण ग्रहण करता है। यहाँ नमूनों से अभिप्राय है माता-पिता, बड़े भाई-बहन या अध्यापक आदि जिन्हें बच्चा अनुकरण य समझता है। स्किनर (Skinner) ने अधिकतर प्रबलन (Reinforcement) का प्रभाव प्रदर्शित करते हुए बतलाया है कि नैतिक व्यवहार का विकास, दंड एवं पुरस्कार पर निर्भर होता है।
संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार से है
लेकिन कोलबर्ग (Kohlberg, 1963) का सिद्धांत इन सभी सिद्धांतों से भिन्न है। उसके सिद्धांत
कोलबर्ग के सिद्धांत की मूलभूत मान्यताएँ
(i) बालक के नैतिक विकास के स्वरूप को समझने के लिए उनके तर्क और सिद्धांत के स्वरूप (Structure of Rearing and Thinking) का विश्लेषण करना आवश्यक होता है। बच्चे द्वारा प्रदर्शित प्रतिक्रियाओं के आधार पर इसकी नैतिकता का सही अनुमान नहीं लगाया जा सकता। अधिकतर परिस्थितियों
में बच्चा भय या पुरस्कार के प्रलोभन में वांछनीय व्यवहार प्रदर्शित करता है, नैतिक चिंतन या नैतिक निर्णय के कारण नहीं। कोलबर्ग ने बालक को किसी धर्मसंकट की स्थिति (Dilemma) में रखकर यह देखा है कि बालक उस परिस्थिति में क्या सोचता है तथा किस तर्क के आधार पर उचित व्यवहार के लिए निर्णय लेता है। कोलबर्ग के इस उपागम को प्राणीगत उपागम (Organismic Approach) भी कहा गया है।
(ii) कोलबर्ग के नैतिक विकास सिद्धांत को ‘अवस्था सिद्धांत’ (Stage Theory) भी कहा गया है। उन्होंने सम्पूर्ण नैतिक विकास को छः अवस्थाओं में बाँटा है तथा इन्हें सार्वभौमिक (Universal) माना है। उनके अनुसार सभी बच्चे इन अवस्थाओं में से गुजरते हैं। नैतिक विकास की ये अवस्थाएँ एक निश्चित क्रम में आती हैं और वह क्रम बदला नहीं जा सकता। नैतिक विकास की प्रत्येक अवस्था में पाई जाने वाली नैतिकता का गुण अन्य अवस्थाओं की नैतिकता से भिन्न होता है। प्रत्येक अवस्था में बालक की तर्क शक्ति (Reasoning) नए प्रकार की होती है।
(iii) जब बच्चा एक अवस्था से दूसरी अवस्था में प्रवेश करता है तो उस बच्चे के भीतर नैतिक व्यवहार गुणात्मक परिवर्तन (Quantitative Changes) कब और कैसे उत्पन्न होते हैं, यह एक विचारणीय प्रश्न है। कोलवर्ग के अनुसार नैतिक व्यवहार में गुणात्मक परिवर्तन क्रमिक रूप से ही आते हैं। अचानक ही पैदा नहीं हो जाते। किसी अवस्था विशेष में पहुँचने पर बालक केवल उसी अवस्था की विशेषताओं का ही प्रदर्शन नहीं करता, बल्कि उसमें कई अवस्थाओं के व्यवहार मिश्रित रूप से दिखाई पड़ते हैं। उसमें अधिकांश व्यवहार जिस अवस्था के अनुरूप होते हैं। बच्चे को उसी अवस्था का मान लिया जाता है
नैतिक विकास की अवस्थाएँ (Stages of Moral Development)
कोलबर्ग ने नैतिक विकास की कुल छः अवस्थाओं का वर्णन किया है। किन्तु उन्होंने दो-दो अवस्थाओं को एक साथ रखकर उनके तीन स्तर बना दिये हैं। ये तीन स्तर है-
1. प्री-कन्वेंशनल (Pre-conventional)
2. कन्वेंशनल (Conventional)
3. पोस्ट कन्वेंशनल (Post Conventional
1.प्री-कन्वेंशनल (Pre-conventional)
प्री-कन्वेंशनल (Pre-conventional)- जब चालक किसी बाहरी तत्त्व या किसी भौतिक घटना के संदर्भ में किसी आचरण को नैतिक अथवा अनैतिक मानता है तो उसकी नैतिक तर्कशक्ति (Moral Reasoning) प्री-कन्वेंशनल स्तर की (Pre-conventional Level) की कही जाती है। इस स्तर के अन्तर्गत निम्नलिखित दो अवस्थाएँ आती हैं-
1. आज्ञा एवं दंड की अवस्था (Stage of Order and Punishment) कोलवर्ग के अनुसार, इस अवस्था में बच्चे का चिन्तन दंड से प्रभावित होता है। परिवार में परिवार के बड़े सदस्य बच्चे को कुछ कार्य करने के आदेश देते रहते हैं। इन आदेशों का उल्लंघन करने पर उसे दंडित किया जाता है। ऐसी परिस्थिति में बच्चा यह सोचता है कि दंड से बचने के लिए आज्ञा का पालन करना अनिवार्य है। छोटी आयु में और अपरिपक्व होने के कारण बच्चा किसी कार्य को करने या न करने का निर्णय इसलिये लेता है, क्योंकि उसे दंड का भय होता है। आज्ञाओं का पालन इसलिए करता है कि लोग उसे दंडित न करें। इस प्रकार नैतिक विकास की शुरू की अवस्था में दंड (Punishment) को ही बच्चों की नैतिकता का मुख्य आधार माना जाता है।
2. अहंकार की अवस्था (Stage of Ego ) – इस उप-अवस्था में बालक के चिन्तन का स्वरूप बदल जाता है। आयु में वृद्धि होने के परिणामस्वरूप बच्चा अपनी आवश्यकताओं और इच्छाओं को भली प्रकार से समझने लगता है। उसके द्वारा किये जाने वाले अधिकांश कार्यों से उसकी इच्छाएं पूरी हो जाती हैं। यदि उसकी कोई इच्छा झूठ बोलने से पूरी होती है तो वह झूठ बोलना उचित मानेगी। भूखे रहने पर किसी वस्तु को चुरा कर खाने को वह नैतिक आचरण ही समझेगा नैतिक विकास की इस अवस्था का आधार बालक 1 का अहंकार (Ego ) अर्थात् उसकी अपनी इच्छाएँ और आवश्यकताएं उसकी नैतिक तर्क शक्ति का आधार बन जाती हैं
2. कन्वेंशनल स्तर (Conventional Level)- इस स्तर के अन्तर्गत निम्नलिखित अवस्थाएं आती है-
1.प्रशंसा की अवस्था (Stage of Appreciation ) – इस अवस्था के अन्तर्गत बच्चा किसी कार्य को इसलिए करता है, क्योंकि दूसरे लोग उसकी प्रशंसा करते हैं। इस अवस्था में बच्चा सामाजिक प्रशंसा और निंदा के महत्त्व को समझने लगते हैं। बच्चे इस अवस्था में निन्दनीय आचरण से बचने के प्रयास में रहते हैं। दूसरी और समाज के सदस्य बच्चों से विशिष्ट भूमिकाओं (Roles) की अपेक्षा करते हैं। जब बच्चे इन भूमिकाओं का निर्वाह उचित प्रकार से करते हैं तो समाज के सदस्यों की ओर से उन्हें स्वीकृति (Approval) मिलने लगती है। इस अवस्था के दौरान उन्हीं व्यवहारों को बच्चे उचित और नैतिक मानते हैं, जिनके लिये वे परिवार, स्कूल, पड़ोस, मित्र मंडली से प्रशंसा या मान्यता प्राप्त करते हैं। इस दृष्टि से हम कह सकते हैं कि अवस्था में बच्चे के चिन्तन का स्वरूप (Structure of Thought) समाज या उसका परिवेश होता है, न कि कोई भौतिक घटना
2. सामाजिक व्यवस्था के प्रति सम्मान की अवस्था (Stage of Respect for Social System) -नैतिक विकास की यह अवस्था बहुत ही महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। कोलबर्ग के अनुसार, समाज के अधिकांश सदस्य नैतिक विकास की इस अवस्था तक पहुँच जाते हैं। इस अवस्था में प्रवेश करने से पहले बच्चा समाज को इसलिये महत्त्वपूर्ण मानता था कि समाज से उसके स्वीकृति या प्रशंसा मिलती थी, अब वह समाज को स्वयं में एक लक्ष्य मानने लगता है। वह समाज की प्रथाओं, परम्पराओं और नियमों में आस्था विकसित करके सम्पूर्ण समाज व्यवस्था के प्रति अपना सम्मान प्रदर्शित करता है। बच्चा यह चाहने लगता है कि उसे कोई अच्छा कार्य इसलिये करना चाहिये क्योंकि यह उसका कर्तव्य है। सामाजिक नियमों के विरुद्ध हर कार्य अनैतिक होगा
3. पोस्ट कन्वेंशनल स्तर (Post Conventional Level)
1. सामाजिक समझौते की अवस्था (Stage of Social Contract) – इस अवस्था में प्रवेश करने पर व्यक्ति के नैतिक चिन्तन की दशा में पर्याप्त परिवर्तन आ जाते है। व्यक्ति पारम्परिक लेन-देन में विश्वास करने लगता है। व्यक्ति यह स्वीकार करके चलता है कि व्यक्ति और समाज के बीच एक समझौते (Contract) का सम्बन्ध है। व्यक्ति को सामाजिक नियम इसलिये स्वीकार करने चाहिए और उनका सम्मान इसलिये करना चाहिए क्योंकि समाज व्यक्ति के हितों की रक्षा करता है। क्योंकि व्यक्ति अब यह सोचने लगता है कि चोरी आदि अनैतिक कार्य होते हैं। ऐसा करने से समाज और व्यक्ति के बीच का समझौता टूट जाता है। अतः अपने नियमों, प्रथाओं, कानूनों के द्वारा समाज व्यक्ति को स्वतंत्रता, अधिकार (Rights) और सुरक्षा प्रदान करता है। अतः ऐसे नियमों का उल्लंघन अनैतिक माना जाता है।
2. विवेक की अवस्था (State of Conscience)-नैतिक विकास की यह अन्तिम अवस्था होती है, क्योंकि इस अवस्था में पहुँचने पर व्यक्ति नैतिकता के बारे में आत्मनिष्ठ (Subjective) दृष्टिकोण भी विकसित करने में सफल हो जाता है। व्यक्ति में विवेक (Conscience) जाग जाता है। व्यक्ति के अच्छे-बुरे, उचित-अनुचित आदि के बारे में अपने व्यक्तिगत विचार विकसित हो जाते हैं। व्यक्ति के नैतिक निर्णय का एकमात्र आधार उसका विवेक (Conscience) ही बन जाता है। अतः इस अवस्था में पहुँचकर व्यक्ति सामाजिक और सरकारी नियमों की व्याख्या अपने स्वयं के दृष्टिकोण के अनुसार करने में सक्षम हो जाता है। वह इस अवस्था में नियमों की वैधता को भी चुनौती देने लगता है, क्योंकि वे नियम उसके विवेक से मेल नहीं खाते। अतः परिणामस्वरूप व्यक्ति अब अपने विवेक के सहारे ही जीवित रहने का आदि हो जाता है। अब व्यक्ति के लिये यही आचरण नैतिक होंगे जो उसके अपने स्वयं के विवेक (Conscience) से समर्थन पा जाते हैं।
हमारी इस पोस्ट को पढ़ने के लिए धन्यवाद हम आशा करते हैं हमारे द्वारा दी गई जानकारी आपके काम आएगी।
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