हिमनद किसे कहते हैं
पृथ्वी पर परत के रूप में हिम प्रवाह या पर्वतीय डालो से घाटियों में रैखिक प्रवाह के रूप में बहते हिम को हिमनद कहते हैं महाद्वीपीय हिमनद या गिरीपद हिमनद वे हिमनद हैं जो समतल क्षेत्र पर हिम औरत के रूप में फैले होते हैं तथा पर्वतीय या घाटी हिमनद वे हिमनद हैं जो पर्वतीय दालों में बहते हैं प्रवाहित जल के विपरीत हिमनद प्रवाह बहुत धीमा होता है
हिमनद प्रतिदिन कुछ सेंटीमीटर या इससे कम से लेकर कुछ मीटर तक प्रभावित हो सकता है मुख्यता गुरुत्व बल के कारण गतिमान होता है हिमनद से प्रबल अपरदन होता है जिसका कारण इसके अपने भार से उत्पन्न घर्षण है हिमनद द्वारा चट्टानी पदार्थ इसके तल में ही इसके साथ रिश्ते जाते हैं या घाटी के किनारों पर अब कर वह घर क्षण द्वारा अत्यधिक अपरदन करते हैं हिमनद पक्षी रहित चट्टानों का भी प्रभावशाली अपरदन करते हैं जिससे ऊंचे पर्वत छोटी पहाड़ियां व मैदानों में परिवर्तित हो जाते हैं
हिमनद के लगातार संचालित होने से हिमनद मलवा हटता होता है विभाजक नीचे हो जाता है और कालांतर में ढाल इतने निम्न हो जाते हैं कि हिमनद की संचलन शक्ति समाप्त हो जाती है तथा निम्न पहाड़ियां व अन्य निक्षेप स्थल वाला एक हिमानी धोत रह जाता है
हिमनद द्वारा निर्मित स्थलाकृति
सर्क
हिमानी कृत पर्वतीय भागों में हेमनाथ द्वारा उत्पन्न स्थल रंध्र मैं सर्क सर्वाधिक महत्वपूर्ण है अधिकतर सर्क हिमनद घाटियों के शीर्ष पर पाए जाते हैं एकत्रित हिम पर्वतीय क्षेत्रों से नीचे आती हुई सर्क को काटती है सर्क गहरे लंबे चौड़े गर्त है जिनकी दीवार तेज ढाल वाली सीधी अवतल होती है हिमनद के पिघलने पर जल से भरी झील भी प्राय इन गर्त में देखने को मिलती है इन झील को सर्क झील कहते हैं आपस में मिले हुए दो या दो से अधिक सर्क सीडीनुमा क्रम में दिखाई देते हैं
हॉर्न या गिरिश्रृंग औऱ सिरेटेड कटक
सर्क के शीर्ष पर अपरदन होने से हॉर्न निर्मित होते हैं यदि 3 या अधिक हिमनद निरंतर शीर्ष पर तब तक अपरदन जारी रखें जब तक उनके तल आपस में मिल जाए तो एक तीव्र किनारो वाली नुकीली चोटी का निर्माण होता है जिसे हॉर्न कहते हैं लगातार अपरदन से सर्क के दोनों तरफ की दीवार तंग हो जाती है और इसका आकार आरी के समान कटक के रूप में हो जाता है जिन्हें अरेत कहते हैं इनका ऊपरी भाग नुकीला तथा बाहरी आकार टेढ़ा मेढ़ा होता है इन कटक का चढ़ना प्राय असंभव होता है
हिमनद घाटी और गर्त
हिमानी कृत घाटियां गर्त की भांति होती हैं हिमनद घाटी गर्त हिमानीकृत घाटियाँ गर्त की भाँति होती हैं जो आकार में अंग्रेजी के अक्षर U जैसी होती हैं; जिनके तल चौडे व किनारे चिकने तथा ढाल तीव्र होते हैं। घाटी में मलबा बिखरा होता है अथवा हिमोढ मलबा दलदली रूप में दिखाई देता है। चट्टानी धरातल पर झील भी उभरी होती है अथवा ये झीलें घाटी में उपस्थित हिमोढ़ मलबे से बनती हैं। मुख्य घाटी के एक तरफ या दोनों तरफ ऊँचाई पर लटकती घाटी भी होती हैं। इन लटकती घाटियों के तल, जो मुख्य घाटी में खुलते हैं, इनके विभाजक क्षेत्रों के कट जाने से ये त्रिकोण रूप में नज़र आती हैं।
निक्षेपित स्थलरूप
पिघलते हुए हिमनद के उ द्वारा मिश्रित रूप में भारी व महीन पदार्थों का निक्षेप- हिमोढ़ या हिमनद गालाश्म के रूप में जाना जाता. है इन निक्षेप मं आज चट्टानी टुकड़े नुकीले या कम नुकीले आकार के होते हैं। हिमनदों के तल, किनारों या छार पर बर्फ पिघलने से सरिताएँ बनती हैं। कुछ मात्रा में शैल मलबा इस पिघले जल से बनी सरिता में प्रवाहित होकर निक्षेपित होता है। ऐसे हिमनदी-जलोढ निक्षेप हिमानी धौत कहलाते हैं। हिमोढ़ निक्षेप के विपरीत हिमानी धौत प्राय: स्तरीकृत व वर्गीकृत होते हैं। हिमनद अपक्षेप में ‘चट्टानी टुकड़े गोल किनारों वाले होते हैं।
हिमोढ़
हिमोढ़ , हिमनद टिल या गोलाश्मी मृत्तिका के जमाव की लबी कटके हैं। अंतस्थ हिमोह हिमनद के अंतिम भाग मलबे के निक्षेप से बनी लंबी कटके हैं। पार्श्विक हिमोढ़ हिमनद घाटी की दीवार के समानांतर निर्मित होते हैं। पार्श्विक हिमोढ अतस्थ हिमोद॒ से मिलकर घोड़े की नाल या अर्ध चंद्राकार कटक का निर्माण करते हैं हिमनद घाटी के दोनों ओर अत्यधिक मात्रा में पार्श्विक हिमोढ पाए जाते हैं। इस हिमोढ की उत्पत्ति पूर्णतया आंशिक रूप से हिमानी-जल द्वारा होती है; जो इस जलोढ को हिमनद के किनारों पर धकेलती है। कुछ घाटी हिमनद तेजी से पिघलने पर घाटी तल पर हिमनद टिल को एक परत के रूप में
एस्कर
ग्रीष्म ऋतु में हिमनद के पिघलने से जल हिमतल के ऊपर से प्रवाहित होता है अथवा इसके किनारों से रिसता है या बर्फ के छिद्रों से नीचे प्रवाहित होता है। यह जल हिमनद के नीचे एकत्रित होकर बर्फ के नीचे नदी धारा में प्रवाहित होता है। ऐसी नदियाँ नदी घाटी के ऊपर बर्फ
के किनारों वाले तल में प्रवाहित होती हैं। यह जलधारा अपने साथ बडे गोलाश्म, चट्टानी टुकड़े और छोटा चटानी मलबा मलबा बहाकर लाती है जो हिमनद के नीचे इस बर्फ की घाटी में जमा हो जाते हैं। ये बर्फ पिघलने के बाद एक वक्राकार कटक के रूप में मिलते
हैं, जिन्हें एस्कर कहते हैं।
हिमानी धौत मैदान
हिमानी गिरिपद के मैदानों में अथवा महाद्वीपीय हिमनदों से दूर हिमानी-जलोढ़ निक्षेपों से (जिसमें बजरी, रेत, चीका मिटटी व मृत्तिका के विस्तृत समतल जलोढ़-पंख भी शामिल हैं), हिमानी धौत मैदान निर्मित होते हैं।
ड्रमलिन
ड्रमलिन हिमनद मृत्तिका के अंडाकार समतल स्थलरूप हैं जिसमें रेत व बजरी के ढेर होते हैं। डरमलिन के लंबे भाग हिमनद के .प्रवाह की दिशा के समानांतर होते हैं। ये एक किलोमीटर लंबे व 30 मीटर तक उँचे होते हैं। ड्मलिन का हिमनद सम्मुख भाग स्टॉस कहलाता है, जो पृच्छ भागों की अपेक्षा तीखा तीव्र ढाल लिए होता है। ड्मलिन का निर्माण हिमनद दरारों में भारी चूटानी मलबे के भरने व उसके बर्फ के
नीचे रहने से होता है।
तरंग व धाराएँ
तटीय प्रक्रियाएँ सर्वाधिक क्रियाशील हैं और इसी कारण अत्यधिक विनाशकारी होती हैं। क्या आप नहीं सोचते कि तटीय प्रक्रियाओं तथा उनसे निर्मित स्थलरूपों को जानना अति महत्त्वपूर्ण है? तट पर कुछ परिवर्तन बहुत शीघ्रता से होते हैं। एक ही स्थान पर एक मौसम में अपरदन व दूसरे मौसम में निक्षेपण हो सकता है। तटों के किनारों पर अधिकतर परिवर्तन तरंगों द्वारा संपन्न होते हैं। जब तरंगों का अवनमन होता है तो जल तट पर अत्यधिक दबाव डालता है और इसके साथ ही साथ सागरीय तल पर तलछटों में भी दोलन होता है। तरंगों के स्थायी अवनमन के प्रवाह से तटों पर अभूतपूर्व प्रवाह पड़ता है। सामान्य तरंग अवनमन की अपेक्षा सुनामी लहरें कम समय में अधिक परिवर्तन लाती हैं। तरंगों में परिवर्तन (उनकी आवृति आदि) होने से उनके अवनमन से उत्पन्न प्रभाव की गहनता भी परिवर्तित हो जाती है।
ऊँचे चट्टानी तट
ऊँचे चट्टानी तटों के सहारे तट रेखाएँ अनियमित होती है तथा नदियाँ जलमग्न प्रतीत होती हैं। तटरेखा का अत्यधिक अवनमन होने से किनारे के स्थल भाग जलमग्न हो जाते हैं और वहाँ फियोर्ड तट बनते हैं। पहाड़ी भाग सीधे जल में डूबे होते हैं। सागरीय किनारों पर प्रारंभिक निश्षेपित स्थलरूप नहीं होते। अपरदित स्थलरूपों की बहुतायत होती है। ऊँचे चट्टानी तटों के सहारे तरंगें अवनमित होकर धरातल पर अत्यधिक बल के साथ प्रहार करती है जिससे पहाड़ी पार्शव भृगु का आकार के लेते हैं। तरंगों के स्थायी प्रहार से भृगु शीघ्रता से पीछे हटते हैं
और समुद्री भूगु के सम्मुख तरंग घर्षित चबूतरे बन जाते हैं तरंगें धीरे-धीरे सागरीय किनारों की अनियमितताओं को कम कर देती हैं।
निम्न अवसादी तट
निचले अवसादी तटों के सहारे नदियाँ तटीय मैदान एवं डेल्टा बनाकर अपनी लंबाई बढ़ा लेती हैं। कहीं-कहीं लैगून व ज्वारीय सँकरी खाड़ी के रूप में जल भराव के अतिरिक्त तटरेखा सम/चिकनी होती है। सागरोन्मुख स्थल मंद ढाल लिए होता है। तटों के साथ समुद्री पंक व दलदल पाए जाते हैं। इन तटों पर निक्षेपित स्थलाकृतियों की बहुतायत होती है। जब मद ढाल वाले अवसादी तटों पर तरंगें अवनमित होती हैं तो तल के अवसाद भी दोलित होते हैं और इनके परिवहन से अवरोधिकाएँ, लैगून व स्पिट निर्मित होते हैं। लैगून कालांतर में दलदल में परिवर्तित हो जाते हैं जो बाद में तटीय मैदान बनते हैं। इन निक्षेपित स्थलाकृतियों का बना रहना अवसादी पदार्थों की स्थायी एवं लगातार आपूर्ति पर निर्भर
करता है। अवसादों के अतिरिक्त तूफान व सुनामी लहरें इनमें अभूतपूर्व परिवर्तन लाती हैं। बड़ी नदियाँ जो अधिक नद्यभार लाती हैं, निचले अवसादी तटों के साथ डेल्टा बनाती हैं।
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